पेंटेकोस्टलिज़्म में पंथों [cult] का उदय: एक आलोचनात्मक मूल्यांकन और उसकी विधर्मी कलीसियाओं पर प्रभाव
पेंटेकोस्टलिज़्म में पंथों का उदय: एक आलोचनात्मक मूल्यांकन और उसकी विधर्मी कलीसियाओं पर प्रभाव
परिचय
पेंटेकोस्टल और करिश्माई आंदोलनों ने जहां आत्मा की सामर्थ्य, व्यक्तिगत अनुभव और मिशनरी उत्साह को बढ़ावा दिया है, वहीं इन आंदोलनों ने अनजाने में ही ऐसे वातावरण को भी जन्म दिया है जहाँ पंथिक नेताओं और झूठी शिक्षाओं वाले समूहों का विकास हुआ है। इस समस्या की जड़ है—कलीसियाई उत्तरदायित्व की कमी। आज कई लोग स्व-घोषित मिशनरी या प्रचारक बनकर बिना किसी आत्मिक देखरेख या प्रशिक्षण के सेवकाई शुरू कर रहे हैं। इस लेख में हम इस प्रवृत्ति की आलोचनात्मक समीक्षा करेंगे और प्रेरितों के काम (प्रेरितों 8, 11, 13) में दिखाए गए प्रारंभिक कलीसिया के दृष्टिकोण के साथ इसकी तुलना करेंगे।
1. प्रारंभिक कलीसिया में मिशनरी सेवकाई की बाइबल आधारित रूपरेखा
प्रेरितों के काम में हम स्पष्ट रूप से देखते हैं कि कोई भी मिशनरी स्वेच्छा से नहीं गया,
बल्कि उन्हें पहचाना गया,
भेजा गया और कलीसिया द्वारा समर्थन मिला। इससे न केवल सिद्धांत की शुद्धता बनी रही,
बल्कि सेवा में उत्तरदायित्व और परिपक्वता भी बनी।
- प्रेरितों 8:14–17
– जब फिलिप ने सामरिया में प्रचार किया, तो यरूशलेम की कलीसिया ने पतरस और यूहन्ना को भेजा ताकि वे सत्यापित कर सकें कि लोग आत्मा से भर गए हैं। यह देखरेख और सामूहिक पुष्टि की मिसाल है।
- प्रेरितों 11:22–26
– जब Antioch में नए विश्वासियों का समूह उभरा,
यरूशलेम कलीसिया ने बर्नबास को भेजा। बर्नबास ने बाद में पौलुस को बुलाया ताकि वे मिलकर उस कलीसिया को सिखा सकें और मजबूत करें।
- प्रेरितों 13:1–3
– पौलुस और बर्नबास को पवित्र आत्मा द्वारा चुना गया,
लेकिन Antioch की कलीसिया ने उन्हें उपवास और प्रार्थना के बाद भेजा। यह स्पष्ट करता है कि आत्मा की अगुवाई भी सामूहिक परीक्षण के अधीन थी।
यह मॉडल आज के कई पेंटेकोस्टल परिप्रेक्ष्य से बहुत भिन्न है, जहाँ लोग अपने अनुभवों और दावों के आधार पर प्रचारक या “पुरुष/स्त्री परमेश्वर के” बन जाते हैं,
बिना किसी उत्तरदायित्व या प्रशिक्षण के।
2. आधुनिक पेंटेकोस्टलिज़्म में पंथों का उदय
आज कई “स्वतंत्र सेवकाई” शुरू हो रही हैं जो किसी भी सिद्धांतात्मक जाँच या कलीसियाई पर्यवेक्षण के बिना कार्य कर रही हैं:
- भ्रामक शिक्षाएँ:
समृद्धि का सुसमाचार, स्वर्गदूतों की पूजा,
असंतुलित आत्मिक युद्ध, और अतिरिक्त-बाइबिल रहस्योद्घाटन—इन सबका प्रचार कुछ पंथिक चर्चों में आम हो गया है।
- व्यक्तित्व पूजा:
बहुत से चर्च एक करिश्माई नेता के इर्द-गिर्द घूमते हैं,
जिनका कथन बाइबल के बराबर या ऊपर माना जाता है। ये नेता अक्सर किसी भी प्रकार की आलोचना या उत्तरदायित्व से बचते हैं (3
यूहन्ना 9–10 देखें)।
- इतिहास और परंपरा से विच्छेद:
कई ऐसे चर्च ऐतिहासिक विश्वास, प्रेरितकालीन शिक्षा और सार्वभौमिक सिद्धांतों को अस्वीकार कर देते हैं,
जिससे झूठी शिक्षाओं और आत्मिक भटकाव को बढ़ावा मिलता है।
3. इसका सिद्धांतात्मक और मिशनरी प्रभाव
- सिद्धांत से भटकाव:
कलीसिया से कटे हुए नेताओं में गलतियों को सुधारने का कोई तंत्र नहीं होता, जिससे वे प्राचीन विधर्मों—जैसे मोडेलिज़्म,
गुप्त ज्ञानवाद, या व्यवस्था की कट्टरता—की ओर लौट जाते हैं।
- नैतिक पतन और उत्पीड़न:
उत्तरदायित्व की कमी से नैतिक भ्रष्टाचार, आत्मिक दमन और सत्ता का दुरुपयोग होता है। ऐसे नेता दूसरों को जवाबदेह नहीं मानते और मंडली पीड़ित होती है (यहेजकेल 34:1–10
देखें)।
- कमज़ोर कलीसियाएँ:
ऐसी पृष्ठभूमि में उभरी कलीसियाएँ अक्सर नेतृत्व,
शिक्षा और आत्मिक परिपक्वता में कमजोर होती हैं। परिणामस्वरूप विश्वासी शिक्षाओं के हर झोंके से डोलते रहते हैं (इफिसियों 4:14)।
4. ऐतिहासिक दृष्टांत और समकालीन संकट
इतिहास में भी ऐसे अनेक उदाहरण मिलते हैं:
- मोंटानिज़्म (2री सदी)
– एक प्रारंभिक करिश्माई आंदोलन जो भविष्यवाणी और आत्मिक श्रेष्ठता पर केंद्रित था। इसने कलीसियाई प्राधिकरण को अस्वीकार कर दिया और अंततः विधर्मी घोषित किया गया।
- आधुनिक उदाहरण:
जिम जोन्स, डेविड कोरेश, और कुछ अफ्रीकी “भविष्यवक्ताओं” की सेवकाई इस बात का प्रमाण हैं कि बिना उत्तरदायित्व के आत्मिक उत्साह कैसे विनाशकारी बन सकता है।
हालांकि यह ध्यान देना आवश्यक है कि हर स्वतंत्र पेंटेकोस्टल सेवकाई विधर्मी नहीं होती। कई बार मिशनरी संदर्भों में ये आवश्यक हो जाती हैं। समस्या तब उत्पन्न होती है जब ये सेवकाइयाँ शिक्षा और उत्तरदायित्व को ठुकरा देती हैं।
5. बाइबल और कलीसिया की ओर पुनः लौटने का आह्वान
इस प्रवृत्ति को रोकने के लिए आवश्यक है:
- चर्च द्वारा भेजी जाने वाली सेवकाई का पुनःस्थापन:
जैसा कि प्रेरितों के युग में हुआ,
कोई भी मिशनरी स्वेच्छा से नहीं जाना चाहिए। कलीसिया को पहचानना, प्रशिक्षण देना और भेजना चाहिए।
- सिद्धांतात्मक उत्तरदायित्व को अपनाना:
स्वतंत्र कलीसियाओं को ऐतिहासिक विश्वास,
भाईचारे की समीक्षा और शिक्षाओं के मूल्यांकन को अपनाना चाहिए।
- शिष्यत्व और बाइबल शिक्षा को बढ़ावा देना:
बाइबल कॉलेज, सेमिनरी और मेंटरशिप द्वारा अगुवों को सिखाना अनिवार्य है (यहूदा 3
देखें)।
- आत्मा के कार्य में विवेकशीलता:
भविष्यवाणी, चंगाई, और चमत्कार को बाइबल की सीमा में समझना जरूरी है। आत्मा की अगुवाई कभी भी वचन की सर्वोच्चता को नहीं लांघती।
निष्कर्ष
पेंटेकोस्टलिज़्म में पंथों का उदय केवल एक समाजशास्त्रीय समस्या नहीं, बल्कि एक गंभीर आत्मिक और सिद्धांतात्मक संकट है। जब कलीसिया से कटकर सेवकाई होती है, तो परिणाम होते हैं—भटकाव, विघटन और आत्मिक विनाश। प्रेरित पौलुस ने तीमुथियुस से कहा: “उस उत्तम भंडार की रक्षा कर, जो तुझ में रखा गया है पवित्र आत्मा की सहायता से” (2 तीमुथियुस 1:14)। यह आज हर कलीसिया और सेवकाई के लिए एक चुनौती और आह्वान है।
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