मसीही और पवित्र स्थल: प्रारंभिक कलीसिया की परंपरा और आज के चर्च भवनों की ओर प्रवृत्ति
मसीही और पवित्र स्थल: प्रारंभिक कलीसिया की परंपरा और आज के चर्च भवनों की ओर प्रवृत्ति
प्रस्तावना
आज के मसीही समाज में चर्च भवनों को लेकर एक गहरी लालसा दिखाई देती है। एक भव्य इमारत, एक स्थायी स्थान, एक प्रतिष्ठित भवन—इन सबकी अभिलाषा इतनी प्रबल हो गई है कि कभी-कभी यह इस मूल प्रश्न से भटका देती है: क्या यह आरंभिक कलीसिया की आत्मा के अनुकूल है? हारोल्ड डब्ल्यू. टर्नर की पुस्तक From Temple to
Meeting House इस प्रश्न का गहन उत्तर देती है, जहाँ वे बताते हैं कि पूजा स्थलों का स्वरूप मसीही धर्मशास्त्र, सामाजिकता और मिशन की समझ को किस प्रकार दर्शाता है।
मंदिर से सभा-गृह की यात्रा: एक धर्मवैज्ञानिक दृष्टिकोण
टर्नर की मूल स्थापना यह है कि यहूदी मंदिर-प्रथा, जहाँ ईश्वर एक विशेष स्थान में 'स्थित' माने जाते थे, वह मसीह के आगमन के साथ एक नवीन दृष्टिकोण में बदल गई। यरूशलेम का मंदिर अब ईश्वर की स्थायी उपस्थिति का केंद्र नहीं रहा। प्रभु यीशु ने कहा, “...जहाँ दो या तीन मेरे नाम से इकट्ठे होते हैं, वहाँ मैं उनके बीच होता हूँ।” (मत्ती 18:20) इस कथन ने स्थल की बजाय संगति और उपासकों को प्राथमिकता दी।
प्रारंभिक कलीसिया ने इस बात को आत्मसात किया। वे सभा-गृहों, घरों, और खुले स्थानों में एकत्र होते थे (प्रेरितों के काम 2:46; रोमियों 16:5)। उनके लिए 'कलीसिया' भवन नहीं बल्कि एक 'जीवित समुदाय' था। टर्नर इस संक्रमण को 'मंदिर मॉडल' से 'सभा मॉडल' की ओर एक धर्मवैज्ञानिक क्रांति मानते हैं।
आज का परिदृश्य: भवन या मिशन?
वर्तमान मसीही समाज में विशेषकर एशियाई और अफ्रीकी देशों में, चर्च भवन को सामाजिक प्रतिष्ठा, पहचान और स्थायित्व का प्रतीक माना जाता है। परंतु क्या यह यथार्थ में आत्मिक मिशन की पूर्ति करता है?
जब मसीही समुदाय अपने संसाधनों और ध्यान का केंद्र भवन निर्माण पर केंद्रित करता है, तब कई बार मिशन, शिष्यता, और सामाजिक हस्तक्षेप की प्राथमिकताएं पीछे छूट जाती हैं। प्रभु यीशु की आज्ञा—“जाकर सब जातियों को चेला बनाओ” (मत्ती 28:19)—कभी-कभी भवन के चारदीवारी में सीमित हो जाती है।
पवित्र स्थान की अवधारणा: धर्मशास्त्रीय पुनरावलोकन
टर्नर स्पष्ट करते हैं कि मसीही विचारधारा में पवित्रता स्थान में नहीं, बल्कि उस समुदाय में है जो आत्मा में और सच्चाई में आराधना करता है (यूहन्ना 4:23–24)। जब हम “ईश्वर के मंदिर” कहलाते हैं (1 कुरिंथियों 3:16), तो यह व्यक्तिगत या सामूहिक शरीर को दर्शाता है, न कि ईंट और पत्थर के ढांचे को।
इसका तात्पर्य यह है कि पवित्रता कोई स्थान नहीं, बल्कि एक जीवन्त वास्तविकता है जो हर उस स्थान में घटित हो सकती है जहाँ मसीही प्रेम, आराधना और सेवा एकत्र होती हैं।
संतुलन की खोज: भवन बनाम समुदाय
इसका यह अर्थ नहीं कि भवन अनावश्यक हैं। सभा के लिए एक उपयुक्त स्थान सुविधाजनक, सुरक्षित और रणनीतिक हो सकता है। परंतु यदि भवन मिशन के लिए साधन बनता है तो वह धर्मशास्त्रसम्मत है, परन्तु यदि वह मिशन पर बोझ बन जाए तो यह बाइबिलिक दृष्टिकोण से विचलन है।
प्रारंभिक कलीसिया ने कभी भी भवन को अपने अस्तित्व का केंद्र नहीं बनाया, उन्होंने समुदाय, सहभागिता, और मिशन को प्राथमिकता दी। आज की कलीसिया को भी इसी विरासत को पुनः अपनाना चाहिए।
निष्कर्ष
From Temple to Meeting House हमें यह याद दिलाती है कि ईश्वर अब किसी एक भवन में सीमित नहीं हैं,
बल्कि वे अपने लोगों के बीच वास करते हैं। प्रारंभिक कलीसिया की तरह, आज भी मसीहियों को अपने ध्यान को भवन की भव्यता से हटाकर आत्मा की उपस्थिति, मिशन की प्रबलता, और समुदाय की आत्मीयता पर केंद्रित करना चाहिए। पवित्रता ईंटों में नहीं, आत्मा से भरे लोगों के जीवन में प्रकट होती है।
Comments