अकेला विश्वासी नहीं: सुसमाचार, बपतिस्मा और कलीसिया क्यों हैं अविभाज्य
अकेला विश्वासी नहीं: सुसमाचार,
बपतिस्मा और कलीसिया क्यों हैं अविभाज्य
परिचय
आज की दुनिया में विश्वास को अक्सर एक निजी पसंद, बपतिस्मा को एक वैकल्पिक रस्म, और कलीसिया को महज़ धार्मिक कार्यक्रमों के स्थान के रूप में देखा जाता है। लेकिन क्या यही वह नमूना है जो यीशु और प्रेरितों ने सिखाया? नया नियम इससे कहीं अधिक स्पष्ट करता है—एक ईश्वरीय योजना जिसमें सुसमाचार को अपनाना, बपतिस्मा लेना और कलीसिया से जुड़ना, सच्चे शिष्यत्व की आधारशिला के रूप में एक-दूसरे से गहराई से जुड़े हैं।
यीशु पृथक व्यक्तियों को नहीं, बल्कि एक नए समुदाय—अपनी कलीसिया—को बनाने आए थे। बपतिस्मा उस समुदाय में प्रवेश का द्वार है, और कलीसिया वह वातावरण है जहाँ शिष्य विकसित होते हैं, परिपक्व होते हैं और परमेश्वर के मिशन में भाग लेते हैं। मसीह बिखरे हुए व्यक्तियों के लिए नहीं, बल्कि अपनी संगठित कलीसिया के लिए लौटेंगे—एक ऐसी प्रजा जो उनके अधीन जीवन जीती है।
यदि हम बपतिस्मा को नज़रअंदाज़ करते हैं या विश्वास को कलीसिया से अलग करते हैं, तो हम परमेश्वर की उद्धार योजना को बिगाड़ते हैं। यह लेख हमें बाइबिल के अनुक्रम की ओर वापस बुलाता है: सुसमाचार पर विश्वास करना, बपतिस्मा के द्वारा सार्वजनिक रूप से मसीह के साथ अपनी पहचान प्रकट करना, और उसकी नई समुदाय—कलीसिया—का भाग बनकर जीवन जीना। केवल तभी हम महान आदेश (Great Commission) को पूरा कर सकते हैं और उस समुदाय का हिस्सा बन सकते हैं जिसे मसीह लेने आ रहे हैं।
कलीसिया में प्रवेश के लिए बपतिस्मा की आवश्यकता और आज की उपेक्षा
नए नियम में बपतिस्मा केवल एक प्रतीकात्मक अनुष्ठान नहीं है, बल्कि यह परमेश्वर द्वारा ठहराया गया वह प्रवेश द्वार है जिसके द्वारा विश्वासियों को दृश्य समुदाय—कलीसिया—में शामिल किया जाता है। यीशु ने स्वयं महान आदेश में कहा, "सब जातियों के लोगों को मेरा चेला बनाओ, उन्हें बपतिस्मा दो..." (मत्ती 28:19–20)। प्रेरितों के काम में हम बार-बार देखते हैं कि सुसमाचार पर विश्वास करने के तुरंत बाद लोग बपतिस्मा लेते थे और कलीसिया में सम्मिलित हो जाते थे (प्रेरितों 2:41; 10:44–48; 16:31–34)।
Jeff Reed और J.I. Packer के अनुसार,
बपतिस्मा मसीह और उसके लोगों के प्रति वफादारी की निर्णायक और सार्वजनिक घोषणा है। बपतिस्मा के बिना शिष्यत्व अधूरा रह जाता है और विश्वास समुदाय के प्रति समर्पण व्यक्त नहीं होता।
फिर भी, आज कई लोग बपतिस्मा को नज़रअंदाज़ कर देते हैं या उसे टालते हैं। इसका मुख्य कारण है आधुनिक समाज में बढ़ती व्यक्तिगतता, जहाँ विश्वास को समुदाय से कटा हुआ निजी मामला मान लिया गया है। कुछ लोग सामाजिक बहिष्कार या उत्पीड़न के डर से (जैसे यहूदी,
मुस्लिम या हिंदू परिवेशों में) बपतिस्मा से बचते हैं। दूसरों के लिए यह एक गैर-जरूरी विकल्प बन गया है।
लेकिन बाइबिल का नमूना स्पष्ट है: सुसमाचार को स्वीकार करना, बपतिस्मा लेना, और कलीसिया में प्रवेश करना—ये तीनों आपस में गहराई से जुड़े हुए हैं। यदि हमें सच्चा शिष्यत्व बहाल करना है और कलीसिया की गवाही को सशक्त बनाना है, तो हमें बपतिस्मा को उसका उचित स्थान फिर से देना होगा—मसीह के समुदाय में प्रवेश के दृश्यमान द्वार के रूप में।
बपतिस्मा और कलीसिया: परमेश्वर की युक्ति
बपतिस्मा एक व्यक्तिगत धार्मिक निर्णय से कहीं अधिक है; यह वह ईश्वरीय कार्य है जिसके द्वारा विश्वासी मसीह के साथ सार्वजनिक रूप से अपनी पहचान प्रकट करते हैं और उसकी नई कलीसिया में ग्रहण किए जाते हैं। यह केवल एक रस्म नहीं बल्कि परमेश्वर की योजना का केंद्रीय भाग है। कलीसिया कोई मानव निर्मित संस्था नहीं, बल्कि वह समुदाय है जिसे परमेश्वर सृष्टि की शुरुआत से गढ़ता आया है—एक ऐसी प्रजा जो विश्वास से चिह्नित, सुसमाचार से परिवर्तित, और मसीह की अधीनता में जीवन जीती है।
कलीसिया से जुड़ना क्यों आवश्यक है
पूरा शास्त्र हमें दिखाता है कि परमेश्वर की उद्धार योजना हमेशा एक नई प्रजा को गढ़ने की रही है, न कि अकेले व्यक्तियों को बुलाने की। यीशु मसीह ने अपने अनुयायियों को अलग-अलग रहने के लिए नहीं, बल्कि एक नए समुदाय—कलीसिया—का भाग बनने के लिए बुलाया। नए नियम में कहीं भी ऐसे मसीही का चित्रण नहीं मिलता जो समुदाय से कटा हुआ हो। प्रारंभिक विश्वासियों ने सुसमाचार पर विश्वास किया, बपतिस्मा लिया, और तुरंत समुदाय में जोड़े गए (प्रेरितों 2:41–47)।
यीशु उस कलीसिया के लिए लौट रहे हैं जो एकजुट, वाचा-आधारित और तैयार है (इफि. 5:25–27; प्रकाशितवाक्य 19:7)। अतः हर विश्वासी के लिए कलीसिया से जुड़ना विकल्प नहीं,
बल्कि आवश्यकता है। यह उसी आज्ञाकारिता का प्रमाण है जो मसीह ने हमें दी है।
परमेश्वर की योजना में कलीसिया की भूमिका
कलीसिया—सार्वभौमिक और स्थानीय—परमेश्वर की योजना में केंद्रीय स्थान रखती है। Hesselgrave ठीक ही कहते हैं कि कलीसिया कोई सांस्कृतिक या ऐतिहासिक संयोग नहीं,
बल्कि एक ईश्वरीय आरंभ है—जो मसीह के बलिदान और पवित्र आत्मा की सामर्थ्य द्वारा स्थापित की गई है।
Jeff Reed अपनी First Principles शृंखला में इस विचार को पुष्ट करते हैं कि परमेश्वर की सदा से योजना रही है "राजा की एक समुदाय" तैयार करना—एक ऐसी प्रजा जो सुसमाचार से परिवर्तित हो,
मसीह की अधीनता में जीवन जीती हो, और उसकी महिमा को संसार में प्रकट करती हो।
कलीसिया का मिशन: सामाजिक सुधार से आगे
आज के समय में कलीसिया का मिशन अक्सर या तो अत्यधिक सामाजिक कार्यों में सिमट जाता है, या केवल व्यक्तिगत आत्मिकता तक सीमित हो जाता है। Hesselgrave दो विकृतियों की पहचान करते हैं: एक,
मिशन का बहुत व्यापक अर्थ जहाँ मानवीय सेवाएं सुसमाचार की घोषणा को पीछे छोड़ देती हैं; दूसरा, केवल प्रचार पर केंद्रित दृष्टिकोण जो स्थानीय कलीसिया की स्थापना से कट जाता है।
जबकि अनाथालय, स्कूल, अस्पताल आवश्यक हो सकते हैं, फिर भी ये कलीसिया के मिशन का केंद्र नहीं हैं। बाइबिल का आदेश है: "सब जातियों के लोगों को मेरा चेला बनाओ" (मत्ती 28:19)—जिसमें सुसमाचार प्रचार, बपतिस्मा, आज्ञाकारिता की शिक्षा, और स्थानीय कलीसियाओं में विश्वासियों का समावेश शामिल है।
Reed इसे और स्पष्ट करते हैं कि कलीसिया शिष्यता का प्रशिक्षण केंद्र है—जहाँ नवविश्वासी “प्रथम सिद्धांतों” के द्वारा शिक्षित होते हैं और सेवा के लिए तैयार किए जाते हैं।
शिष्यता के लिए पोषणदायी समुदाय: कलीसिया
प्रेरितों के काम में हम देखते हैं कि जिसने भी विश्वास किया, उसे तत्काल कलीसिया—ekklēsia—में जोड़ा गया (प्रेरितों 2:42–47)। वहां आराधना,
संगति, शिक्षा और मिशन एक-दूसरे से जुड़े हुए थे।
Jeff Reed बताते हैं कि शिष्य बनाने का अनुक्रम है: सुसमाचार सुनाना, विश्वासियों को प्रथम सिद्धांतों में स्थापित करना, समुदाय में शामिल करना, और मिशन में भागी बनाना। यह सब कलीसिया के बाहर संभव नहीं।
Hesselgrave ऐतिहासिक दृष्टिकोण से जोड़ते हैं कि प्रारंभिक कलीसिया, रोमी उत्पीड़न के बावजूद, एकजुट और आत्मनिर्भर "कोशिकाएं" थीं, जिन्होंने सामूहिक रूप से रोमी साम्राज्य को रूपांतरित किया।
मिशन और कलीसिया की स्थापना: एक अविभाज्य यथार्थ
Hesselgrave इस बात पर जोर देते हैं कि सुसमाचार प्रचार और कलीसिया की स्थापना एक-दूसरे से अलग नहीं किए जा सकते। केवल प्रचार और व्यक्तिगत परिवर्तन पर्याप्त नहीं; सच्चे मिशन में स्थायी, स्थानीय कलीसियाओं की स्थापना भी शामिल होनी चाहिए—जैसे पौलुस ने अपने मिशन यात्राओं में किया (प्रेरितों 14:21–23)।
Reed भी कहते हैं कि मिशन तभी पूरा होता है जब विश्वासियों को स्थानीय सभाओं में इकट्ठा किया जाए, सिखाया जाए और सेवा के लिए तैयार किया जाए।
वैश्विक दृष्टि: अज्ञात लोगों तक पहुँच
Hesselgrave आधुनिक कलीसिया को चुनौती देते हैं कि वह केवल परिचित क्षेत्रों में कार्य न करे, बल्कि उन लोगों तक भी पहुँचे जिन्हें अब तक सुसमाचार नहीं मिला। आज भी 2.2 अरब लोग ऐसे हैं जिन तक मसीह का नाम नहीं पहुँचा है।
Reed चेतावनी देते हैं कि केवल आंतरिक देखभाल वाली कलीसिया पर्याप्त नहीं; उसे बाहर जाकर नगरों, पड़ोसों, और राष्ट्रों तक सुसमाचार पहुँचाना चाहिए।
निष्कर्ष: सुसमाचार,
बपतिस्मा और कलीसिया—परमेश्वर की अटूट योजना
यीशु का अनुसरण करने के लिए कोई एकाकी मार्ग नहीं है। बाइबिल का क्रम स्पष्ट है: सुसमाचार को स्वीकार करना, बपतिस्मा लेना, और कलीसिया में जीवन जीना—यह सब परमेश्वर द्वारा ठहराया गया है। मसीह व्यक्तिगत विश्वासियों के लिए नहीं, बल्कि अपनी संगठित कलीसिया के लिए लौटेंगे—जो प्रेम, एकता और उद्देश्य में उसकी महिमा को प्रतिबिंबित करती है (इफि. 5:25–27)।
प्रारंभिक कलीसिया ने इस सत्य को अपनाया, और आज भी हर विश्वासी को इसी बुलाहट को सुनना चाहिए: एकाकी विश्वास को त्यागो, बपतिस्मा की आज्ञा का पालन करो, और परमेश्वर के परिवार का हिस्सा बनो।
सच्चे शिष्यत्व का मार्ग है: सुसमाचार। बपतिस्मा। कलीसिया। समुदाय। मिशन।
यही आत्मिक परिपक्वता की नींव है, और हर पीढ़ी में मसीह की बुलाहट को पूरा करने का मार्ग।
Bibliography
- Hesselgrave, David. The Heart
of Christian Mission. Grand Rapids: Baker, 1991.
- Reed, Jeff. The First
Principles Series (Various Volumes). BILD International, 2004–2010.
- McGavran, Donald. Understanding
Church Growth. Grand Rapids: Eerdmans, 1990.
- Winter, Ralph D. "The New
Macedonia: A Revolutionary New Era in Mission Begins." Perspectives
on the World Christian Movement, ed. Ralph D. Winter and Steven C.
Hawthorne. Pasadena: William Carey Library, 2009.
Comments